एक पागलखाने के बगीचे में एक युवक से मेरी भेंट हो गई । उसका चेहरा पीला, सुन्दर और विस्मय की भावनाओं से भरा हुआ था।
मैं उसके बगल में ही बेंच पर जा बैठा और उससे पूछा, " अरे, तुम यहाँ कैसे आए ?"
उसने आश्चर्य से मेरी और देखकर कहा " आपका प्रश्न है तो अजीब, फिर भी जवाब देता हूँ। मेरे पिता और चाचा मुझे अपनी तरह बनाना चाहते हैं, मेरी माँ मुझे मेरे नाना की प्रतिमूर्ति देखना चाहती हैं, मेरी बहन मेरे सामने अपने नाविक पति का आदर्श उपस्थित करती है और मेरा भाई मुझे अपने समान अच्छा खिलाडी बनाने की बात सोचता है।"
" मेरे शिक्षक - दर्शन, संगीत और तर्कशास्त्र के अध्यापक - सब के सब इस बात पर कटिबद्ध हैं की वे मुझमें दर्पण की तरह अपना प्रतिबिम्ब देखें ।" इसलिए मुझे यहाँ आना पड़ा। यहाँ मैं अधिक स्वस्थता का अनुभव करता हूँ कम-से-कम अपना व्यक्तित्व तो है।"
तभी वह अचानक मेरी ओर घूमकर बोला "लेकिन यह तो बताइए, आप यहाँ कैसे आए ? क्या आपको भी आपकी शिक्षा और सदबुद्धि ने यहाँ आने के लिए प्रेरित किया है?
मैंने उत्तर दिया " नहीं, मैं तो एक दर्शक के रूप में आया हूँ।"
और उसने कहा " अच्छा, समझा ! आप इस चारदीवारी के बाहर के विस्तृत पागलखाने के निवासी हैं।"
- खलील जिब्रान
एकांत में अपना स्वत्व ही अपना परिचय है,सुकून है
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया रश्मि जी ।
हटाएंबहुत खूब....!!
जवाब देंहटाएंकहानी है या यथार्थ...!!
आप जाने...लेकिन आज का सत्य यही है...या कहा जाये तो न जाने कब से यही सत्य चला आ रहा है...हर कोई दूसरे को खींच कर अपने जैसा बनाने की होड़ में लगा है...!! जरा सा ज्ञान मिला नहीं कि हम उपदेशक बन जाते हैं..चाहते हैं कि हमारी बात सुनी जाये और मानी जाये..!दुसरे के अस्तित्व को ओवरटेक करना इसी को कहते हैं..बात बेटे या बेटी की नहीं....लगभग हर सम्बन्ध में यही देखने को मिल जाता है...!
आपके लेख से किसी को प्रेरणा मिले...प्रार्थना करती हूँ...!!
बहुत शुक्रिया पूनम दी......मर्म तक पहुँची हैं आप.....सही कहा किसी को प्रेरणा मिल सके इससे अच्छा और क्या हो सकता है।
हटाएंजीवन दर्शन
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सदा जी ।
हटाएंइमरान भाई शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसुन्दर सोच
शुक्रिया यशोदा जी ।
हटाएंसुंदर लिंक्स हैं आभार
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनु जी....ब्लॉग पर आने और अपनी टिप्पणी देने का ।
हटाएंniruttar.....kar diya...wah
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अना जी ।
हटाएंबहुत ही बढ़िया .. हालाँकि दो-तीन बार पढनी पड़ी .. और शायद कभी आपसे और जानूंगा इस कहानी के सार को .. लेकिन ऊपर रश्मि मौसी के कमेन्ट से कुछ कुछ समझ तो आया ही ..
जवाब देंहटाएंसादर
मधुरेश
शुक्रिया मधुरेश जी.......जब भी आप चाहें.....अगर आप ऊपर पूनम जी का कमेन्ट पढ़ें तो भी आपको इसका मर्म स्पष्ट हो जायेगा :-)
हटाएंसचमुच यह दुनिया एक पागल खाना है और इसके भीतर जो पागल खाने आदमी ने बनाये हैं, वे छोटे इंतजाम किये हैं, खुद को बचाए रखने के, बहुत सुंदर संदेश देती बोध कथा !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया अनीता जी।
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