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जनवरी 04, 2013

बाँसुरी



भारी है मेरी आत्मा अपने स्वयं के पके हुए फल से
कौन अब आएगा, खायेगा और तृप्त होगा?
मेरी आत्मा लबालब भरी है मेरी ही मदिरा से 
कौन अब ढालेगा, पियेगा और ठंडा होगा?

काश मैं एक वृक्ष होता, बिना फूल और बिना फल का 
क्योंकि अधिकता की पीड़ा उजड़ेपन से कहीं अधिक कड़वी है 
और अमीर का दुःख, जिसे कोई ग्रहण नहीं करता 
कहीं बड़ा है एक भिखारी की निर्धनता से, जिसे कोई नहीं देता

काश मैं एक कुआँ होता, सुखा और झुलसा हुआ 
और मनुष्य मेरे अन्दर पत्थर फेंकते 
क्योंकि यह अच्छा है व्यय हो जाना  
अपितु जीवित जलकर उद्गम बनना 
जबकि मनुष्य उसकी बगल से गुजरें और उसका पान न करें 

काश मैं एक बाँसुरी होता, पैर के नीचे कुचली हुई 
क्योंकि यह चाँदी के तार वाली एक वीणा होने से अच्छा है 
ऐसे मकान में, जिसके मालिक की उँगलियाँ न हों 
और जिसके बच्चे बहरे हों,   

- खलील जिब्रान