एक पागलखाने के बगीचे में एक युवक से मेरी भेंट हो गई । उसका चेहरा पीला, सुन्दर और विस्मय की भावनाओं से भरा हुआ था।
मैं उसके बगल में ही बेंच पर जा बैठा और उससे पूछा, " अरे, तुम यहाँ कैसे आए ?"
उसने आश्चर्य से मेरी और देखकर कहा " आपका प्रश्न है तो अजीब, फिर भी जवाब देता हूँ। मेरे पिता और चाचा मुझे अपनी तरह बनाना चाहते हैं, मेरी माँ मुझे मेरे नाना की प्रतिमूर्ति देखना चाहती हैं, मेरी बहन मेरे सामने अपने नाविक पति का आदर्श उपस्थित करती है और मेरा भाई मुझे अपने समान अच्छा खिलाडी बनाने की बात सोचता है।"
" मेरे शिक्षक - दर्शन, संगीत और तर्कशास्त्र के अध्यापक - सब के सब इस बात पर कटिबद्ध हैं की वे मुझमें दर्पण की तरह अपना प्रतिबिम्ब देखें ।" इसलिए मुझे यहाँ आना पड़ा। यहाँ मैं अधिक स्वस्थता का अनुभव करता हूँ कम-से-कम अपना व्यक्तित्व तो है।"
तभी वह अचानक मेरी ओर घूमकर बोला "लेकिन यह तो बताइए, आप यहाँ कैसे आए ? क्या आपको भी आपकी शिक्षा और सदबुद्धि ने यहाँ आने के लिए प्रेरित किया है?
मैंने उत्तर दिया " नहीं, मैं तो एक दर्शक के रूप में आया हूँ।"
और उसने कहा " अच्छा, समझा ! आप इस चारदीवारी के बाहर के विस्तृत पागलखाने के निवासी हैं।"
- खलील जिब्रान