एक प्राचीन नगर में किसी समय में दो विद्वान रहते थे । उनके विचारों में बड़ी भिन्नता थी । एक - दूसरे की विद्या की हँसी उड़ाते थे, क्योंकि उनमे से एक आस्तिक था और दूसरा नास्तिक।
एक दिन दोनों बाज़ार में मिले और अपने अनुयायियों की उपस्थिति में ईश्वर के अस्तित्व पर बहस करने लगे । घंटों बहस करने के बाद एक - दूसरे से अलग हुए।
उसी शाम को नास्तिक गिरजे में गया और वेदी के सामने सर झुकाकर अपने पिछले पापों के लिए क्षमा माँगने लगा । ठीक उसी समय दूसरे विद्वान ने भी, जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता था, अपनी पुस्तकें जला डालीं क्योंकि अब वह नास्तिक बन गया था ।
- खलील जिब्रान
ओह ...संगत का असर आता ही है ...!!बहुत सुंदर बात ..!!
जवाब देंहटाएंआभार .
शुक्रिया अनुपमा जी ।
हटाएंबहुत सही !
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया यशवंत जी ।
हटाएंवास्तव में आस्तिकता और नास्तिकता में फर्क ऊपर ऊपर से दिखता है, नास्तिक की गहराई में आस्तिक छिपा है, आस्तिक की गहराई में नास्तिक , बहस से उनके ऊपर के मुल्लमे उतर गए, हम सभी ऐसे ही हैं पाले बदलते रहते हैं तब तक जब तक उसका दीदार नहीं हो जाता और तब कोई कुछ भी कहे...ज्ञानवर्धक पोस्ट !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अनीता जी.....सही बात है मन का द्वंद्ध ऐसे ही चलता रहता है.....मर्म तक पहुँचती हैं आप।
हटाएंगहन भाव लिए ... उत्कृष्ट प्रस्तुति ...आभार
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सदा जी ।
हटाएंनास्तिक हूँ या हो गया कहना भी आस्तिक होना ही है ...मैं ईश्वर को नहीं मानता , किसे नहीं मानता , कोई तो है जिसे नहीं मानता !!!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वाणी जी.....आपका तर्क बिलकुल सही है ।
हटाएंइसे कहते हैं संगति का गुप्त प्रभाव ... बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया पल्लवी जी।
हटाएंक्या असर है .. एक का दूसरे पर!
जवाब देंहटाएंजीवन में,हम बहुत सी बातों को जानते नहीं,बस मानते हैं। आस्तिकता और नास्तिकता का भाव ऐसा ही है। जो जैसा अनुभव करे,उसे वैसा ही होना चाहिए।
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